1.1 पुरातात्विक स्रोत
प्राचीन भारतीय इतिहास लेखन के स्रोत निम्न हैं-
काल | निर्भरता |
प्रागैतिहासिक काल | पुरातात्विक स्रोत |
आद्य ऐतिहासिक काल | पुरातात्विक + साहित्यिक स्रोत |
ऐतिहासिक काल | पुरातात्विक + साहित्यिक स्रोत + विदेशी विवरण |
पुरातात्विक स्रोत के अन्तर्गत मुख्य रूप से अभिलेख, सिक्के, स्मारक एवं भवन, मूर्तियां, चित्रकला, अवशेष आदि आते हैं।
प्राचीन वस्तुओं के अध्ययन का कार्य सर विलियम जोन्स ने शुरू किया। उन्होंने १७७४ ई॰ में 'एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल' की स्थापना की तथा विभिन्न शिलालेखों को भारी संख्या में एकत्रित किया। जेम्स प्रिंसेप ने ब्राह्मी लिपि का अनुसंधान कर इसके अध्ययन को सरल बनाया।
(i) अभिलेख :- इनके अध्ययन को पुरालेखशास्त्र तथा इनकी और दूसरे पुराने दस्तावेजों की प्राचीन तिथि के अध्ययन को पुरालिपि शास्त्र कहते हैं। अभिलेख पत्थर एवं धातु की चादरों के अतिरिक्त मुहरों, मंदिर की दीवारों, ईटों और मूर्तियों पर भी खुदे हैं।
आरंभ में अभिलेखों में प्राक्रत भाषा का प्रयोग होता था । लगभग दूसरी शताब्दी ई॰ से संस्कृत का भी प्रयोग होने लगा । शक नरेश रुद्रदामन का जूनागढ़ अभिलेख संस्कृत में लिखा पहला अभिलेख है ।
सबसे प्राचीन अभिलेख अशोक के हैं। अशोक के नाम का स्पष्ट उल्लेख गुर्जरा (म.प्र.) तथा मास्की (आन्ध्र प्रदेश) अभिलेखों पर हैं। अधिकतर ब्राह्मी लिपि में लिखे अशोक के अभिलेखों को पढ़ने में सर्वप्रथम १८३७ में जेम्स प्रिंसेप ने सफलता पायी। अशोक के अभिलेख ब्राह्मी, खरोष्ठी, अरमाइक तथा यूनानी (ग्रीक) लिपि में मिलते हैं। गुर्जरा तथा मास्की के अतिरिक्त पानगुडइया (म. प्र.) निट्टूर तथा उद्गोलम के अभिलोखों में भी अशोक के नाम का उल्लेख है। लघमान एवं शरेकुना से प्राप्त अशोक के अभिलेख यूनानी अरमाइक लिपियों में हैं।
पतंजलि के महाभाष्य से पता चलता है कि पुष्यमित्र शुंग के अश्वमेघ यज्ञ किए थे । इस बात की पुष्टि उसी के वंशज धनदेव के अयोध्या अभिलेख से होती है । एशिया माइनर में बोगजकोई नामक स्थान पर १४०० ई॰पू॰ का एक अभिलेख (संधिपत्र) मिला है जिसमें इन्द्र, मित्र, वरुण और नासत्य वैदिक देवताओं के नाम दिए गए हैं । पार्सिपोलिस तथा बेहिस्तून अभिलेखों से पता चलता है कि ईरानी सम्राट दारा (डेरियस) प्रथम ने सिंधु नदी घाटी पर अधिकार कर लिया था । पढे ना जा सकने वाले अभिलेखों में सबसे प्राचीन अभिलेख हड़प्पा संस्कृति के मुहरों पर हैं जो लगभग २३००-१९०० ई॰पू॰ के हैं । फिरोज़शाह तुगलक को अशोक के दो स्तम्भ लेख मेरठ तथा टोपरा (हरियाणा) से मिले थे , जिसे उसने दिल्ली मंगवाया ।
(i i) सिक्के:- सिक्कों के अध्ययन को 'मुद्राशास्त्र' कहा जााता है। पुराने सिक्के सोना, चांदी, तांबा, कांस्य, सीसा एवं पोटिन के मिलते हैैं। पकाई गई मिट्टी के बने सिक्कों के सांचे सबसे अधिक कुषाण काल के हैं।
आरंभ में अभिलेखों में प्राक्रत भाषा का प्रयोग होता था । लगभग दूसरी शताब्दी ई॰ से संस्कृत का भी प्रयोग होने लगा । शक नरेश रुद्रदामन का जूनागढ़ अभिलेख संस्कृत में लिखा पहला अभिलेख है ।
सबसे प्राचीन अभिलेख अशोक के हैं। अशोक के नाम का स्पष्ट उल्लेख गुर्जरा (म.प्र.) तथा मास्की (आन्ध्र प्रदेश) अभिलेखों पर हैं। अधिकतर ब्राह्मी लिपि में लिखे अशोक के अभिलेखों को पढ़ने में सर्वप्रथम १८३७ में जेम्स प्रिंसेप ने सफलता पायी। अशोक के अभिलेख ब्राह्मी, खरोष्ठी, अरमाइक तथा यूनानी (ग्रीक) लिपि में मिलते हैं। गुर्जरा तथा मास्की के अतिरिक्त पानगुडइया (म. प्र.) निट्टूर तथा उद्गोलम के अभिलोखों में भी अशोक के नाम का उल्लेख है। लघमान एवं शरेकुना से प्राप्त अशोक के अभिलेख यूनानी अरमाइक लिपियों में हैं।
पतंजलि के महाभाष्य से पता चलता है कि पुष्यमित्र शुंग के अश्वमेघ यज्ञ किए थे । इस बात की पुष्टि उसी के वंशज धनदेव के अयोध्या अभिलेख से होती है । एशिया माइनर में बोगजकोई नामक स्थान पर १४०० ई॰पू॰ का एक अभिलेख (संधिपत्र) मिला है जिसमें इन्द्र, मित्र, वरुण और नासत्य वैदिक देवताओं के नाम दिए गए हैं । पार्सिपोलिस तथा बेहिस्तून अभिलेखों से पता चलता है कि ईरानी सम्राट दारा (डेरियस) प्रथम ने सिंधु नदी घाटी पर अधिकार कर लिया था । पढे ना जा सकने वाले अभिलेखों में सबसे प्राचीन अभिलेख हड़प्पा संस्कृति के मुहरों पर हैं जो लगभग २३००-१९०० ई॰पू॰ के हैं । फिरोज़शाह तुगलक को अशोक के दो स्तम्भ लेख मेरठ तथा टोपरा (हरियाणा) से मिले थे , जिसे उसने दिल्ली मंगवाया ।
(i i) सिक्के:- सिक्कों के अध्ययन को 'मुद्राशास्त्र' कहा जााता है। पुराने सिक्के सोना, चांदी, तांबा, कांस्य, सीसा एवं पोटिन के मिलते हैैं। पकाई गई मिट्टी के बने सिक्कों के सांचे सबसे अधिक कुषाण काल के हैं।
भारत के प्राचीनतम सिक्कों पर केवल चिन्ह उत्कीर्ण हैं। उन पर किसी भी प्रकार का कोई लेख नहीं है। ये आहत सिक्के या पंचमाक्र्ड सिक्के कहलाते हैं। इन सिक्कों पर पेड़, मछली , हाथी, साँड, अर्द्धचन्द्र की आकृतियां बनी होती थीं। बाद के सिक्कों पर तिथियां, राजाओं और देवताओं के नाम अंकित होने लगे।
सबसे पहले हिंद यूनानियों ने ही स्वर्ण मुद्राएं जारी कीं। सबसे अधिक शुद्ध स्वर्ण मुद्राएं कुषाणों ने तथा सबसे अधिक स्वर्ण मुद्राएं गुप्तों ने जारी कीं। सबसे अधिक सिक्के मौर्योत्तर काल के मिले हैं, जिससे तत्कालीन वाणिज्य व्यापार की उन्नत स्थिति का पता चलता है। आहत सिक्कों का अध्ययन इतिहासकार डॉ● कौशाम्बी ने प्रस्तुत किया है।
(iii) स्मारक एवं भवन- प्राचीन काल में महलों एवं मंदिरों की शैली से वास्तुकला के विकास पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। साथ ही सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक अवस्था का भी आभास मिलता है। मंदिरों में उत्तर-भारत की कला शैली को नागर दक्षिण-भारत की कला शैली को द्रविड़ तथा दक्षिणापथ की कला शैली को वेसर शैली कहा जाता है। वेसर शैली में नागर और द्रविड़ का मिश्रण है।
(iv) मूर्तियां- मूर्तियां जनसाधारण की धार्मिक आस्थाओं, कला के विकास आदि का द्योतक होती हैं। कुषाण की मूर्तिकला में यूनानी प्रभाव अधिक है। गुप्तकाल की मूर्तिकला में अन्तरात्मा एवं मुखाकृति में सामंजस्यता दिखाई पड़ती है तथा गुप्तोत्तर काल की इस कला में सांकेतिकता अधिक है। भरहुत, बोधगया, सांची और अमरावती की मूर्तिकला जनसाधारण के जीवन की अत्यंत सजीव झांकी प्रस्तुत करती है।
(v) चित्रकला- अजन्ता की चित्रकला में माता और शिशु तथा मरणासन्न राजकुमारी जैसे चित्रों में शाश्वत भावों की अभिव्यंजना हुई है।
(vi) भौतिक अवशेष- अवशेष प्रागैतिहासिक काल तथा आद्य इतिहास की महत्वपूर्ण जानकारी देते हैं। मोहनजोदड़ो से प्राप्त 500 से अधिक मुहरों से हड़प्पा संस्कृति के निवासियों के धार्मिक विश्वासों की जानकारी मिलती है। बसाढ़ से प्राप्त मिट्टी की मुहरों से व्यापारिक श्रेणियों का पता चलता है। अवशेषों से पता चलता है कि भारत में लोहे का प्रयोग ई●पू● 1100 में हुआ।
(vii) मृदभांड- मृदभांड के द्वारा विभिन्न संस्कृतियों की पहचान सम्भव है। जैसे नवपाषाणकालीन स्थलों से पांडु रंग के उत्तम मृदभांड प्राप्त होते हैं। हड़प्पा काल में लाल भांड, उत्तर-वैदिक काल में चित्रित धूसर भांड तथा मौर्य युग की पहचान उत्तरी काले पॉलिश वाले मृदभांड से की जाती है।